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बहु प्रतिभावान राजनितिज्ञ अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजकारण त 50 वर्षापासून सक्रीय आहेत. आपल्या राजकीय प्रवासात वाजपेयीछी सर्वात आदर्शवादी व प्रशंसनीय राजनेते होते. अटलजीसारखा नेता असणे संपूर्ण देशासाठी गौरवाचा विषय आहे. त्यांच्या बहूतांश कामामुळे देश आज या उंचीवर पोहचला आहे. जवाहरलाल नेहरुंच्या नंतर जर कोणी 3 वेळा पंतप्रधान बनले असेल तर ते अटलजीच आहेत. अटलजी गेल्या 5 दशकापासूण संसदेत सक्रिय आहेत. सोबतच एकमेव राजनेते आहेत,जे 4 वेगवेगळ्या प्रदेशातून खासदार बनले आहेत. भारत स्वतंत्र होण्यापूर्वीच अटलजींनी राजकारणात प्रवेश केला होता. त्यांनी गांधीजींच्या ‘भारत छोडो’ अंदोलनात सहभाग घेतला आणि अनेकवेळा तुरुंगवासही भोगला होता.
अटलजी बहुमुखी प्रतिभेचे धनी होते.उत्तम कवी होते,जे राजकारणावरही आपली कविता आणि विडंबन करत ते सर्वांना आश्चर्पचकीत करत असत.
त्यांच्या अनेक कविता प्रकाशित झाल्या आहेत त्या लोक आजही वाचतात. अटलजींना अापली मातृभाषा हिंदीविषयी विलक्षण प्रेम होते. अटलजी असे पहिले राजनेते आहेत,ज्यांनी यू एन जनरल असेंबली मध्ये हिंदीत भाषण केले होते. अटलजी पहिल्यांदा 13 दिवसांसाठी पंतप्रधान बनले होते. त्यानंतर ते एक वर्षनंतर पंतप्रधान बनले परंतु हा कार्यकाळही एक वर्षाचाच होता. तिसर्यांदा अटलजी पंतप्रधान बनले ,तेव्हा त्यांनी 5 वर्षाचा कार्यकाळ पूर्ण केला.
क्रमांक | जीवन परिचय बिंदु | अटल बिहारी जीवन परिचय |
1. | पूर्ण नाव | अटल बिहारी वाजपेयी |
2. | जन्म | 25 डिसेंबर 1924 |
2. | मृत्यु | 16 अगस्त 2018 |
3. | जन्म स्थान | ग्वालियर, मध्यप्रदेश |
4. | माता-पिता | कृष्णा देवी, कृष्णा बिहारी वाजपेयी |
5. | विवाह | नहीं हुआ |
6. | राजनैतिक पार्टी | भारतीय जनता पार्टी |
7. | अवार्ड | 1992 – पद्म विभूषण 1994 – लोकमान्य तिलक अवार्ड 1994 – बेस्ट सांसद अवार्ड 1994 – पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त अवार्ड 2014 – भारत रत्न |
अटलजींचा जन्म मध्य प्रदेशातील ग्वाल्हेर जिल्ह्यातील एका मध्यमवर्गीय कुटुंबात झाला. अटलजींना 7 भावंडे होती. त्यांचे वडील कृष्णाबिहारी शाळेत शिक्षक आणि कवी होते. स्वरस्ती शाळेतून शालेय शिक्षण घेतल्यानंतर अटलजींनी लक्ष्मीबाई महाविद्यालयातून पदवी पूर्ण केली, त्यानंतर त्यांनी कानपूरच्या डीएव्हीव्ही महाविद्यालयातून अर्थशास्त्रात पदव्युत्तर शिक्षण घेतले. त्यांनी लखनौच्या लॉ कॉलेजमध्ये पुढील अभ्यासासाठी अर्जही केला, पण नंतर अभ्यासात त्यांचे मन रमले नाही आणि त्यांनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाद्वारे प्रकाशित एका मासिकात संपादक म्हणून काम करण्यास सुरुवात केली.
अटलजी एक चांगले पत्रकार, राजकारणी आणि कवी म्हणून ओळखले जातात. अटलजींनी कधीही लग्न केले नाही, परंतु त्यांनी बी एन कॉल यांच्या नमिता आणि नंदिता या दोन मुली दत्तक घेतल्या. अटलजी एक सच्चे देशभक्त होते, शिक्षण घेत असतानाही ते स्वातंत्र्य लढ्यात मोठ्या नेत्यांसोबत उभे राहिले. ते त्यावेळी अनेक हिंदी वृत्तपत्रांचे संपादकही होते.
अटलजींचा राजकीय प्रवास स्वतंत्रसेनानीच्या रुपात सुरु झाला. 1942 च्या भारत छोड़ो आंदोलनात अन्य नेत्यांसह त्यांनी सहभाग घेतला आणि तुरुंगातही गेले. दरम्यान त्यांची भेट भारतीय जनसंघाचे नेते श्यामाप्रसाद मुखर्जी यांच्याशी झाली. अटलजींनी मुखर्जींसोबत राजकीय डावपेच शिकून घेतले. मुखर्जी यांच्या मृत्यूनंतर अटलजींनी भारतीय जनसंघाची धुरा सांभाळली. आणि संपूर्ण देशभर जनसंघाचा विस्तार केला.
अटलजींना संगीताची खूप आवड आहे, त्यांचे आवडते गायक लता मंगेशकर, मुकेश आणि रफी आहेत. अटलजींनी आयुष्यभर लग्न न करण्याचे व्रत घेतले होते, त्यावर ते ठाम राहिले. त्यांच्या दत्तक कन्या नमिता आणि नंदिता त्यांच्या निकट असतात. अटलजींचे त्यांच्या नातेवाईकांशी आत्मियतेचे संबंध आहेत.
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था।
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर, फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी है कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
हिंदु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार क्षार।
डमरू की वह प्रलयध्वनि हूं जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुँआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से, जगती मे आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़, चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं आदि पुरुष, निर्भयता का वरदान लिये आया भू पर।
पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पीकर।
अधरों की प्यास बुझाई है, पी कर मैने वह आग प्रखर।
हो जाती दुनिया भस्मसात, जिसको पल भर में ही छूकर।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन।
मैं नर, नारायण, नीलकण्ठ बन गया न इसमे कुछ संशय।
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमर दान।
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर घहर, सागर के जल में छहर छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं तेजपुन्ज तमलीन जगत में फैलाया मैने प्रकाश।
जगती का रच करके विनाश, कब चाहा है निज का विकास?
शरणागत की रक्षा की है, मैने अपना जीवन देकर।
विश्वास नही यदि आता तो साक्षी है इतिहास अमर।
यदि आज देहली के खण्डहर, सदियों की निद्रा से जगकर।
गुंजार उठे ऊंचे स्वर से ‘हिन्दु की जय’ तो क्या विस्मय?
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
दुनिया के वीराने पथ पर जब जब नर ने खाई ठोकर।
दो आँसू शेष बचा पाया जब जब मानव सब कुछ खोकर।
मैं आया तभी द्रवित होकर, मैं आया ज्ञान दीप लेकर।
भूला भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जगकर।
पथ के आवर्तों से थक कर, जो बैठ गया आधे पथ पर।
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढनिश्चय।
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैने छाती का लहु पिला पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझको मानव में भेद नही, मेरा अन्तःस्थल वर विशाल।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राज मुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरिट तो क्या विस्मय?
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं वीरपुत्र मेरी जननी के जगती में जौहर अपार।
अकबर के पुत्रों से पूछो, क्या याद उन्हें मीनाबजार?
क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग में जलने वाली आग प्रखर?
जब हाय सहस्त्रों माताएं, तिल तिल कर जल कर हो गई अमर।
वह बुझने वाली आग नहीं रग रग में उसे समाए हूं।
यदि कभी अचानक फूट पडे विप्लव लेकर तो क्या विस्मय?
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिन्दु करने घर घर में नरसंहार किए?
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नही, शत शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैं एक बिन्दु, परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तन मन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण।
मैं तो समाज की थाती हूं, मै तो समाज का हूं सेवक।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दु तन मन, हिन्दु जीवन, रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
आज सिंधु में ज्वार उठा है,
नगपति फिर ललकार उठा है,
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर,
पांचजन्य हुँकार उठा है।
शत–शत आघातों को सहकर,
जीवित हिंदुस्थान हमारा,
जग के मस्तक पर रोली सा,
शोभित हिंदुस्थान हमारा।
दुनियाँ का इतिहास पूछता,
रोम कहाँ, यूनान कहाँ है?
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता,
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के,
व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा,
किंतु चीर कर तम की छाती,
चमका हिंदुस्थान हमारा।
हमने उर का स्नेह लुटाकर,
पीड़ित ईरानी पाले हैं,
निज जीवन की ज्योति जला,
मानवता के दीपक बाले हैं।
जग को अमृत का घट देकर,
हमने विष का पान किया था,
मानवता के लिये हर्ष से,
अस्थि–वज्र का दान दिया था।
जब पश्चिम ने वन–फल खाकर,
छाल पहनकर लाज बचाई,
तब भारत से साम गान का,
स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने,
दिव्य ज्ञान का दान दिया था,
अम्बर के ललाट को चूमा,
अतल सिंधु को छान लिया था।
साक्षी है इतिहास, प्रकृति का,
तब से अनुपम अभिनय होता,
पूरब से उगता है सूरज,
पश्चिम के तम में लय होता।
विश्व गगन पर अगणित गौरव,
के दीपक अब भी जलते हैं,
कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम,
युग के शत–सपने पलते हैं।
किन्तु आज पुत्रों के शोणित से,
रंजित वसुधा की छाती,
टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित,
बलिदानी पुरखों की थाती।
कण-कण पर शोणित बिखरा है,
पग-पग पर माथे की रोली,
इधर मनी सुख की दीवाली,
और उधर जन-जन की होली।
मांगों का सिंदूर, चिता की
भस्म बना, हां-हां खाता है,
अगणित जीवन-दीप बुझाता,
पापों का झोंका आता है।
तट से अपना सर टकराकर,
झेलम की लहरें पुकारती,
यूनानी का रक्त दिखाकर,
चन्द्रगुप्त को है गुहारती।
रो-रोकर पंजाब पूछता,
किसने है दोआब बनाया?
किसने मंदिर-गुरुद्वारों को,
अधर्म का अंगार दिखाया?
खड़े देहली पर हो,
किसने पौरुष को ललकारा?
किसने पापी हाथ बढ़ाकर
माँ का मुकुट उतारा?
काश्मीर के नंदन वन को,
किसने है सुलगाया?
किसने छाती पर,
अन्यायों का अम्बार लगाया?
आंख खोलकर देखो! घर में
भीषण आग लगी है,
धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने,
दानव क्षुधा जगी है।
हिन्दू कहने में शर्माते,
दूध लजाते, लाज न आती,
घोर पतन है, अपनी माँ को,
माँ कहने में फटती छाती।
जिसने रक्त पीला कर पाला,
क्षण-भर उसकी ओर निहारो,
सुनी सुनी मांग निहारो,
बिखरे-बिखरे केश निहारो।
जब तक दु:शासन है,
वेणी कैसे बंध पायेगी,
कोटि-कोटि संतति है,
माँ की लाज न लुट पाए।
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।
याद करें काला पानी को,
अंग्रेजों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर से बलिदानी को।
याद करें बहरे शासन को,
बम से थर्राते आसन को,
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू
के आत्मोत्सर्ग पावन को।
अन्यायी से लड़े,
दया की मत फरियाद करें।
उनकी याद करें।
बलिदानों की बेला आई,
लोकतंत्र दे रहा दुहाई,
स्वाभिमान से वही जियेगा
जिससे कीमत गई चुकाई
मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,
युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,
कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी
मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।
अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में
क्यों अवसाद करें?
उनकी याद करें।
हिन्दु महोदधि की छाती में धधकी अपमानों की ज्वाला,
और आज आसेतु हिमाचल मूर्तिमान हृदयों की माला ।
सागर की उत्ताल तरंगों में जीवन का जी भर कृन्दन,
सोने की लंका की मिट्टी लख कर भरता आह प्रभंजन ।
शून्य तटों से सिर टकरा कर पूछ रही गंगा की धारा,
सगरसुतों से भी बढ़कर हां आज हुआ मृत भारत सारा ।
यमुना कहती कृष्ण कहाँ है, सरयू कहती राम कहाँ है
व्यथित गण्डकी पूछ रही है, चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ है?
अर्जुन का गांडीव किधर है, कहाँ भीम की गदा खो गयी
किस कोने में पांचजन्य है, कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?
अगणित सीतायें अपहृत हैं, महावीर निज को पहचानो
अपमानित द्रुपदायें कितनी, समरधीर शर को सन्धानो ।
अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले पौरुष फिर से जागो
क्षत्रियत्व विक्रम के जागो, चणकपुत्र के निश्चय जागो ।
कोटि कोटि पुत्रो की माता अब भी पीड़ित अपमानित है
जो जननी का दुःख न मिटायें उन पुत्रों पर भी लानत है ।
लानत उनकी भरी जवानी पर जो सुख की नींद सो रहे
लानत है हम कोटि कोटि हैं, किन्तु किसी के चरण धो रहे ।
अब तक जिस जग ने पग चूमे, आज उसी के सम्मुख नत क्यों
गौरवमणि खो कर भी मेरे सर्पराज आलस में रत क्यों?
गत गौरव का स्वाभिमान ले वर्तमान की ओर निहारो
जो जूठा खा कर पनपे हैं, उनके सम्मुख कर न पसारो ।
पृथ्वी की संतान भिक्षु बन परदेसी का दान न लेगी
गोरों की संतति से पूछो क्या हमको पहचान न लेगी?
हम अपने को ही पहचाने आत्मशक्ति का निश्चय ठाने
पड़े हुए जूठे शिकार को सिंह नहीं जाते हैं खाने ।
एक हाथ में सृजन दूसरे में हम प्रलय लिए चलते हैं
सभी कीर्ति ज्वाला में जलते, हम अंधियारे में जलते हैं ।
आँखों में वैभव के सपने पग में तूफानों की गति हो
राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रुकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो ।
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।
कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।
किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।
आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?
जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।
आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।
धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने।
आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है।
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।
अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता।
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।
इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिनगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?
अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।
जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।
अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा ।
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
माँ के सभी सपूत गूँथते ज्वलित हृदय की माला।
हिन्दुकुश से महासिंधु तक जगी संघटन-ज्वाला।
हृदय-हृदय में एक आग है, कण्ठ-कण्ठ में एक राग है।
एक ध्येय है, एक स्वप्न, लौटाना माँ का सुख-सुहाग है।
प्रबल विरोधों के सागर में हम सुदृढ़ चट्टान बनेंगे।
जो आकर सर टकराएंगे अपनी-अपनी मौत मरेंगे।
विपदाएँ आती हैं आएँ, हम न रुकेंगे, हम न रुकेंगे।
आघातों की क्या चिंता है ? हम न झुकेंगे, हम न झुकेंगे।
सागर को किसने बाँधा है ? तूफानों को किसने रोका।
पापों की लंका न रहेगी, यह उचांस पवन का झोंका।
आँधी लघु-लघु दीप बुझाती, पर धधकाती है दावानल।
कोटि-कोटि हृदयों की ज्वाला, कौन बुझाएगा, किसमें बल ?
छुईमुई के पेड़ नहीं जो छूते ही मुरझा जाएंगे।
क्या तड़िताघातों से नभ के ज्योतित तारे बुझ पाएँगे ?
प्रलय-घनों का वक्ष चीरकर, अंधकार को चूर-चूर कर।
ज्वलित चुनौती सा चमका है, प्राची के पट पर शुभ दिनकर।
सत्य सूर्य के प्रखर ताप से चमगादड़ उलूक छिपते हैं।
खग-कुल के क्रन्दन को सुन कर किरण-बाण क्या रुक सकते हैं ?
शुध्द हृदय की ज्वाला से विश्वास-दीप निष्कम्प जलाकर।
कोटि-कोटि पग बढ़े जा रहे, तिल-तिल जीवन गला-गलाकर।
जब तक ध्येय न पूरा होगा, तब तक पग की गति न रुकेगी।
आज कहे चाहे कुछ दुनिया कल को बिना झुके न रहेगी।
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये – बंधन चिरबंधन
टूटें-फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख-भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू – धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट-लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हृद्-तंत्री झंकृत कर दे।
आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;
कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर।
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥
मासूम बच्चों,
बूढ़ी औरतों,
जवान मर्दों की लाशों के ढेर पर चढ़कर
जो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैं
उनसे मेरा एक सवाल है :
क्या मरने वालों के साथ
उनका कोई रिश्ता न था?
न सही धर्म का नाता,
क्या धरती का भी संबंध नहीं था?
पृथिवी मां और हम उसके पुत्र हैं।
अथर्ववेद का यह मंत्र
क्या सिर्फ जपने के लिए है,
जीने के लिए नहीं?
आग में जले बच्चे,
वासना की शिकार औरतें,
राख में बदले घर
न सभ्यता का प्रमाण पत्र हैं,
न देश-भक्ति का तमगा,
वे यदि घोषणा-पत्र हैं तो पशुता का,
प्रमाश हैं तो पतितावस्था का,
ऐसे कपूतों से
मां का निपूती रहना ही अच्छा था,
निर्दोष रक्त से सनी राजगद्दी,
श्मशान की धूल से गिरी है,
सत्ता की अनियंत्रित भूख
रक्त-पिपासा से भी बुरी है।
पांच हजार साल की संस्कृति :
गर्व करें या रोएं?
स्वार्थ की दौड़ में
कहीं आजादी फिर से न खोएं।
बस का परमिट मांग रहे हैं,
भैया के दामाद;
पेट्रोल का पंप दिला दो,
दूजे की फरियाद;
दूजे की फरियाद,
सिफारिश काम बनाती;
परिचय की परची,
किस्मत के द्वार खुलाती;
कह कैदी कविराय,
भतीजावाद प्रबल है;
अपनों को रेवड़ी,
मंत्रिपद तभी सफल है!
दिल्ली के दरबार में,
कौरव का है ज़ोर;
लोक्तंत्र की द्रौपदी,
रोती नयन निचोर;
रोती नयन निचोर
नहीं कोई रखवाला;
नए भीष्म, द्रोणों ने
मुख पर ताला डाला;
कह कैदी कविराय,
बजेगी रण की भेरी;
कोटि-कोटि जनता
न रहेगी बनकर चेरी।
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है।
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है।
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है।
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है।
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
जीवन बीत चला
कल कल करते आज
हाथ से निकले सारे
भूत भविष्य की चिंता में
वर्तमान की बाज़ी हारे
पहरा कोई काम न आया
रसघट रीत चला
जीवन बीत चला
हानि लाभ के पलड़ों में
तुलता जीवन व्यापार हो गया
मोल लगा बिकने वाले का
बिना बिका बेकार हो गया
मुझे हाट में छोड़ अकेला
एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बढ़ते जाते देखो हम बढ़ते ही जाते॥
उज्वलतर उज्वलतम होती है
महासंगठन की ज्वाला
प्रतिपल बढ़ती ही जाती है
चंडी के मुंडों की माला
यह नागपुर से लगी आग
ज्योतित भारत मां का सुहाग
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम
दिश दिश गूंजा संगठन राग
केशव के जीवन का पराग
अंतस्थल की अवरुद्ध आग
भगवा ध्वज का संदेश त्याग
वन विजनकान्त नगरीय शान्त
पंजाब सिंधु संयुक्त प्रांत
केरल कर्नाटक और बिहार
कर पार चला संगठन राग
हिन्दु हिन्दु मिलते जाते
देखो हम बढ़ते ही जाते ॥
यह माधव अथवा महादेव ने
जटा जूट में धारण कर
मस्तक पर धर झर झर निर्झर
आप्लावित तन मन प्राण प्राण
हिन्दु ने निज को पहचाना
कर्तव्य कर्म शर सन्धाना
है ध्येय दूर संसार क्रूर मद मत्त चूर
पथ भरा शूल जीवन दुकूल
जननी के पग की तनिक धूल
माथे पर ले चल दिये सभी मद माते
बढ़ते जाते देखो हम बढ़ते ही जाते॥
कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें:
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ।
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ।
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ।
या महान राजकारणीने 16 ऑगस्ट 2018 रोजी दिल्लीच्या एम्समध्ये अखेरचा श्वास घेतला. त्याच्यावर उपचार करणाऱ्या डॉक्टरांच्या म्हणण्यानुसार, त्याचा मृत्यू न्यूमोनिया आणि एकाधिक अवयव निकामी झाल्यामुळे झाला.
विशेष म्हणजे अटलजी बर्याच काळापासून आजारी होते आणि वर्ष 2009 मध्ये ते स्ट्रोकमुळे त्यांची विचार करण्याची आणि समजण्याची क्षमता प्रभावित झाली आणि ते हळूहळू डिमेंशिया नावाच्या आजाराने ग्रस्त झाले.
भारतरत्न पुरस्कारप्राप्त अटलजींच्या निधनानंतर राष्ट्रपती रामनाथ कोविंद यांनी देशभरात सात दिवसांचा राजकीय शोक जाहीर केला आणि सात दिवसांसाठी म्हणजे 16 ऑगस्ट 2018 ते 22 ऑगस्ट 2018 पर्यंत आपल्या देशाचा ध्वज अर्ध्यावर फडकवला जाईल. सोबतच, केंद्र सरकारच्या कार्यालयांमध्ये कार्यरत लोकांना अर्ध्या दिवसाची सुट्टी देण्यात आली, जेणेकरून हे अधिकारी अटलजींना श्रद्धांजली वाहू शकतील.
याशिवाय अनेक राज्य सरकारांनीही आपल्या राज्यात राजकीय शोक घोषित केला आहे. आपल्या राज्यातील सरकारी शाळा आणि कार्यालये बंद ठेवली आहेत.तर हिमाचल प्रदेशच्या राज्य सरकारने अापल्या राज्यात दिवसांची सुट्टी जाहीर केली आहे.
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